वर्तमान शिक्षा व्यवस्था ने शिक्षा का प्रसार तो किया है, लेकिन स्तरीय शिक्षा के मसले पर कोई प्रगति नहीं हो पाई है। भारत निर्माण का नारा बुलंद करने वाली सरकारों को यह ध्यान देना होगा कि शिक्षा व्यवस्था नारों तक ही सीमित न रहे बल्कि उसकी गुणवत्ता में भी सुधार हो सके…
गुरु-शिष्य परंपरा का इतिहास सदियों पुराना है। हमारी शिक्षा प्रणाली का शुभारंभ गुरुकुलों से आरंभ हुआ था। जहां बेहतर माहौल में रहते हुए श्रेष्ठ आचरण का पालन करते हुए विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे और श्रेष्ठ संस्कारों से सुसज्जित होकर समाज में जाते था, जिससे श्रेष्ठ समाज एवं सुसंस्कृत समाज का निर्माण होता था। तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था एवं शैक्षणिक प्रणाली पर यदि नजर दौड़ाएं तो ज्ञात होता है कि शिक्षा के साथ-साथ संस्कार भी गुरु के पास थे, लेकिन शैक्षणिक यात्रा के वर्तमान दौर तक पहुंचते-पहुंचते भारतीय शिक्षा पद्धति छिन्न-भिन्न हो गई है। शिक्षा शैक्षणिक संस्थाओं में सिमट गई है और संस्कार परिवार और सामाजिक परिवेश में आ गए हैं, जहां अनेक सामाजिक विषमताओं एवं कुरीतियों से आज के विद्यार्थियों को जूझना पड़ रहा है। प्राचीनकाल में श्रेष्ठ संस्कारों से युक्त शिक्षाविदों की आज भी पूजा होती है। स्वयं 11 कलाओं के अवतार श्रीराम एवं संपूर्ण 16 कलाओं के अवतार योगेश्वर श्रीकृष्ण ने भी गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त की थी और गुरुकुलों में शिक्षित विद्यार्थी 14 विद्याओं का ज्ञान लेकर समाज में लौटता था, जिसमें विश्व का बाह्य आध्यात्म ज्ञान ही नहीं अपितु दिव्य ज्ञान, दिव्यास्त्र शस्त्र ज्ञान भी समाहित था। आज एक शिक्षक के पास छह घंटे में 35 मिनट विद्यार्थी रहता है और शिक्षक के पास उस वक्त भी विद्यार्थियों को पढ़ाने का समय नहीं होता। शिक्षक विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करने के बजाय सरकार द्वारा सौंपे गए जनगणना एवं मतदाता सूची बनाने आदि के काम में ही व्यस्त रहता है। वर्ष भर की गतिविधियों पर नजर डालें तो ज्ञात होता है कि किसी भी तरह के सरकारी कार्य में, शिक्षकों की भागीदारी अधिक रहती है। जनगणना के कार्य से लेकर, मतदाता सूचियों को बनाने का जिम्मा शिक्षकों को ही सौंपा जाता है। पंचायत चुनाव, लोकसभा, विधानसभा चुनाव सभी चुनावों में मतदाता सूची से संबंधित कार्य शिक्षकों को ही सौंपा जाता है। सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों से सरकार विद्यार्थियों को शिक्षा दिलाने के अलावा अन्य सभी कार्य करवाती है। सरकारी शिक्षकों की अन्य कार्यों में व्यस्तता के कारण शिक्षा के स्तर में गिरावट आई है। यही कारण है कि अधिकतर अभिभावक अपने बच्चों को निजी स्कूलों में शिक्षा दिलाना चाहते हैं। शिक्षा के नाम पर निजी स्कूल रूपी दुकानों में ही जागरूक माता-पिता भारी फीस देकर दाखिला करवा रहे हैं। सरकारी क्षेत्र के विद्यालयों में ग्रामीण बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दी जाए, सरकार ने इस आरे कभी ध्यान ही नहीं दिया है। आंकडे़ इस तथ्य के गवाह हैं कि अधिकांश शैक्षणिक संस्थाएं शिक्षकों के अभाव से जूझ रही हैं। कम वेतन पर पीटीए, विद्या उपासक जैसे शिक्षक काम कर रहे हैं, जिन्हें औपचारिकता मात्र माना जा सकता है। ऐसी स्थिति में शैक्षणिक गुणवत्ता किस कसौटी पर खरी उतर सकती है। अब जबकि हिमाचल प्रदेश में चुनाव संपन्न हुए हैं, और 20 दिसंबर को भावी सरकार कौन बनाएगा यह निर्णय भी हो जाएगा। ऐसे में आगामी सरकार को यदि शैक्षणिक गुणवत्ता में सुधार लाना है, तो सर्वप्रथम सभी शैक्षणिक संस्थाओं में रिक्त पदों को भरा जाना चाहिएऔर शिक्षकों को केवल शैक्षणिक कार्य करने देना चाहिए। उन्हें कठपुतली बनाकर अन्य कार्यों से मुक्त रखना होगा और विद्यालयों जो फिजूल के कार्य शिक्षकों पर लाद दिए हैं, जैसे एमडीएम या आंकड़े जोड़ना, इनके लिए अतिरिक्त लिपिक का प्रावधान किया जाना चाहिए। शैक्षणिक संस्थाओं को अत्याधुनिक शिक्षा प्रणाली से जोड़ते हुए, शिक्षकों को राजनीतिक प्रताड़ना से मुक्त रखना होगा। इतना ही नहीं, शैक्षणिक गुणवत्ता सुधारने के लिए तथा शैक्षणिक माहौल बेहतर बनाने के लिए शिक्षकों, प्रधानाचार्यों, मुख्याध्यापकों को पर्याप्त अधिकार दिए जाने चाहिए। शैक्षणिक संस्थाओं में शिक्षा संबंधी सभी मूलभुत सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाएं तथा केवल पास होने की औपचारिक शिक्षा प्रणाली से आगे बढ़ते हुए स्तरीय शिक्षा प्रदान करने के प्रयास किए जाने चाहिए। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था ने शिक्षा का प्रसार तो किया है, लेकिन स्तरीय शिक्षा के मसले पर कोई प्रगति नहीं हो पाई है। भारत निर्माण का नारा बुलंद करने वाली सरकारों को यह ध्यान देना होगा कि शिक्षा व्यवस्था नारों तक ही सीमित न रहे बल्कि उसकी गुणवत्ता में भी सुधार हो सके। तभी भारत के भविष्य निर्माण के लिए हमें उपयुक्त मानव संसाधन उपलब्ध हो पाएगा।
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